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युवाओं में बढती आत्महत्याएं

Posted by khaskhabar.com
suicide in youngester

पिछले कुछ समय से हमारे देश में आत्महत्याओं की घटनाएं काफी बढ गई हैं। आत्महत्या करने वालों में ज्यादातर टीनएजर्स और युवा शामिल हैं। लेकिन हमने कभी सोचा है कि क्यो आत्महत्याएं इतनी बढ रही है। कभी किसी स्कू ल का छात्र तो कभी कोई मेडिकल स्टूडेंट कभी कोई शादीशुदा पे्रमी या पे्रमिका तो कभी कोई शादीशुदा महिला,कभी कर्ज से परेशान आदमी,तो कभी कोई किसान... कारण अलग-अलग,हालात अलग-अलग,पर घटना सिर्फ एक...किसी की मौत,आखिर कब रूकेगा ये सिलसिला और अब तो इसके सबसे ज्यादा शिकार स्टूडेंट व युवापीढी हो रहे हैं। निराशा, डिपे्रशन, दबाव, लाचारी,बीमारी-कारण कई हैं,पर क्या सबका एक ही रास्ता है, एक ही उपाय है-आत्महत्या पिछलें दिनों अकेले मुंबई में बडे तादाद में आत्महत्याएं हुई हैं। हर साल भारत में ही लगभग 100,000 आत्महत्याएं होती हैं। दुनियाभर में होनी वाली आत्महत्याओं में 10 फीसदी भागीदारी अकेले भारत की हैं, आखिर क्यों हो रही हैं इतनी आत्महत्याएं।
1. टीवी चैनलों पर दिखाए गए कार्यकमोंü के माध्यम से, स्कू ल-कॉलेजों में ग्रेड के माध्यम से और आपसी तुलना का भूत हमारा पीछा नहीं छोडता। आज हर बच्चाा अपनी सफलता को अपनी एकेडेमिक और व्यावसायिक सफलता से आंकता है। यदि इन दो क्षेत्रों में वो सफल नहीं हो पाया,तो उसे लगता है कि वो एक असफल इंसान है और उसका जीवन व्यर्थ है। इस परिस्थिति को बदलने के लिए हमें समाज का ढांचा बदलना होगा। एजुकेशन,बिजनेस, इंटरटेनमेंट आदि क्षेत्रों में सामूहिक सफलता ही सफलता का असली मापदंड होना चाहिए। जैसे क्लास में 15-15 बच्चों को ग्रुप बनाकर उन्हें पास या फेल करना चाहिए। समूह में से एक बच्चा फेल तो पूरा गु्रप फेल। अब पास होने के लिए पूरा ग्रुप कोशिश करेगा। अधिक उत्साह,लगन व हौसले के साथ काम होगा। तब स्थिति अच्छी और अलग होगी।
2. सिर्फ रैगिंग या पढाई का बोझ ही मेडिकल स्टूडेंट्स में आत्महत्या के लिए जिम्मेदार नहीं है, बल्कि समस्याएं और भी बहुत-सी हैं, जिसमें "पियर पे्रशर" और "मेडिकल पे्रशर" के साथ-साथ "रीजनलिज्म" भी एक कारण है। देश-विदेश से लोग मेडिकल इंस्टीट्यूट में पढने के लिए आते है, यहां पर तरह-तरह के दबाव बनते हैं,पर दूसरे और भी बहुत से मुद्दे हैं। जहां कई बार खुद को हेल्पलेस महसूस करते हैं। प्रोफेशनल टीचर भी इतनी मदद नहीं करते। एक डर ये भी लगा रहता है कि हमारे पैरेंट्स ने हमारे लिए इतनी भारी रकम खर्च की है, कहीं हम उनकी अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर पाए तो। ""
3. युवाओं के बीच संस्कार हीनता फैलती जा रही है। आज न अभिभावक ईश्वर में विश्वास रखते हैं, न धैर्य से काम लेते हैं। आज अभिभावक भी, जो खुद नहीं बन पाते हैं, वे चाहते हैं कि उनके बच्चो वो बने । चाहे बच्चों को बनाने के लिए बेचैन रहते हैं। चाहे बच्चो को वो विषय पसंद हो या न हो। पहले ऎसी किताबें पढी जाती थी, जिनकी कहानियां हमें जीने की नई पे्ररणा देती रहती थी, पर आज ऎसा नहीं है,साथ ही युवाओं में सहनशीलता भी नहीं रही, क्योंकि उन्हें वो माहौल ही नहीं दिया गया है।
4. आत्महत्या का एक कारण पे्रशर यानी दबाव हैं, मानसिक दबाव,आजकल हर बच्चा या स्टूडेंट दबाव व तनाव में रहता हैं। उन्होनें छोटी उम्र से ही अपने माहौल के अनुसार एक स्टेटस बना लिया है। जहां प्रोग्रामों में एक को ऊपर उठा देते हैं तो दूसरे को गिरा देते हैं, वे सभी को एक रेस में खडा कर देते हैं, जहां सिर्फ भागते जाना ही उनकी नियति बन जाती हैं। जरा-सा लडखडाए नहीं कि सब कुछ खत्म, हमें इसके समाधान के बारे में गंभीरता से सोचना होगा। इस पूरी मुहिम को पैरेंट्स को ही शुरू करना होगा,क्योंकि वे ही बच्चे को डगमागने से बचा सकते हैं।""
5. आत्महत्याओं के लिए किसी हद तक अभिभावक भी जिम्मेदार होते हैं। वे अपने बच्चों को समझ सकते हैं, समझा सकते हैं, दुनिया उन्हें गलत समझे, ये बच्चे बर्दाशत कर भी लेते हैं, लेकिन मम्मी-पापा ही बच्चो को न समझ पाएं, ये बच्चे सह नहीं सकते। अगर बच्चो पैरेंट्स को अपने दिल की बात नहीं बताते तो आगे बढकर वे पहल करें। फिर देखिए किस तरह पैरेंट्स के विश्वास के साथ वे दुनिया से लड जाएंगे,पर लडखडाएंगे नहीं।""
6. आजकल बढती आत्महत्याओं के जिम्मेदार न केवल पैरेंट्स, टीचर व पडोसी हैं, बल्कि पूरा समाज है, बढते बच्चो को देखकर हर कोई अपना नजरिया उस पर थोपने लगता हैं अरे क्या कर रहे हो। अगर सांइस कर रहा है तो कॉमर्स करना चाहिए था और अगर कॉमर्स कर रहा है तो मीडिया और अगर कुछ नहीं कर रहा तो शादी क्यों नहीं कर रहा, वगैरह वगैरह...इन्हीं सब दबावों के चलते आज के बच्चो, युवा जाने कितने तनावों से गुजरते हैं,
जिसका हमें पता भी नहीं चलता नतीजा घर से भागना या आत्महत्या...।
क्या विडंबना है कि हमारी युवापीढी,जिनके हाथों में इस देश का भविष्य हैं,वे अपने ही भविष्य को समाप्त करने की प्रवृति पाल रहा हैं। कारण,कुछ भी हो,रोकना होगा इस मानसिकता को,इस प्रवृति को। ये चिंता का विषय है, बहस का नहीं। बंद करना होगा ये सिलसिला... पर कैसे। इसके लिए एकजुट होकर प्रयास करने की जरूरत हैं। सबसे पहले पैरेंट्स को आगे आना होगा। पढनी होगी बच्चों की अनलिखी ख्वाहिश, सुननी होगी उसकी खामोशी। उसके संस्कारों में ये घोल देना हैं कि "तुम सिर्फ तुम हो" पूरी तरह से संपूर्ण, पूरी तरह से सुरक्षित। तुम किसी के जैसे नहीं, कोई तुम्हारे जैसा नहीं। रही बात संघर्ष की, असफलताओं, हताशाओं और निराशाओं की तो वह जीवन का एक हिस्सा है। साथ ही टीचर्स को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। पैरेंट्स के बाद अगर कोई बच्चो को इतने करीब से देखता है तो वो हैं टीचर। उन्हें बच्चों की आपस में तुलना न करके उनके सामूहिक विकास पर बल देना चाहिए। दरअसल,पूरे सामाजिक परिपे्रक्ष्य में,एक सकारात्मक सोच व दृष्टिकोण की जरूरत है। मिलकर सोचना है,बचाना है हमारे युवाओं को।